Tuesday, December 9, 2008

Kooye- tanhaayi mein khush hun..

Voh bejaa koshishein karte hain manane ki.

Aur humein aadat nahi hai aazmaane ki..

Meri fikr na kar ; hain mere ahbaab bahut.

Kya hua jo hain tanz nigaahein zamane ki.

Rahbar na sahi; chalo anzaan hi sahi.

Jahan mein kaun karta hai parwah anzaane ki.

Ik musht yun dene the ashqon ke tohfe.

Jarurat hi kya thi ik muddat hansaane ki..

Sare-shaam kar diya tanha bazme-jahan mein.

Uss pe saza di khud ko bhulaane ki..

Khush thi main; falak pe chaand nihaar ke.

Kyun ki jurarrat usko aangan mein bulane ki.

Kooye- tanhaayi mein khush hun be-inteha..

Chaahat nahi fir koi mehfil sazaane ki..

Adaawat ki ahmiyat jarre se bhi kam hai.

Aur naa jarurat rahi doston ke samjhaane ki.

‘roshan-ae-khyaal’ tassavur badal badal jaate hain.

Fir vajah kya hai sukhan ke thehar jaane ki..

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ankita

Monday, November 10, 2008

मैं..

***

पेचीदगी में उलझी हूँ..

चाहकर भी न सुलझी हूँ..

कुछ इस कद्र हैरां सी..

खुद से ही परेशां सी..

कभी कभी चुपके से..

साये सी निगाहबां सी..

कैफियत की गिरफ्त में..

गुमशुदगी की जब्त में..

तारीख से लड़ती हूँ..

माजी को पलटती हूँ..

चाहतों को यूँ समेट..

पुरजोर कोशिशें करती हूँ..

इसी कश्म-कश में गुम..

मसरूफियत का लबादा ओढे..

हर कदम संभलती हूँ..

बहरहाल मैं खुश हूँ..

***

Thursday, September 11, 2008

Tumko main kya naam dun..

Kya duaa kya salaam dun..

Tum khud mukammal duaa ho,

Sajde mein lafz tamaam dun.

Tum falak pe chaand jaise,

Aur tumhe kya mukaam dun.

Tum sabaab-ae- sukoon dil ke,

Isse jyada kya kaam dun.

Karaar ki tarah milte raho,

sehar dun fir shaam dun.

Pyaase ho zamaane se tum,

Gazalon-nazmon ke jaam dun.

Jab ibteda tumse hai meri,

Kyun ise main anzaam dun.

Tum mujhe tohfe se mile ho,

Har shai khaaso-aam dun.

Jehan-o-jaan tumse roshan,

Roshan-ae-khyaal tumhe kalaam dun.

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ankita

Monday, September 8, 2008

''लड़की''

किसी ने कह दिया हंसके, बला है..
हर दौर ने उसको बस छला है..

जफा, जिल्लत, जग हंसाई तोहफे में मिली..
उसकी खामोशियों का बस यही सिला है..

हर कदम पे नसीब सितम और लाचारी..
फिर भी कब किसी से उसको गिला है..

ख्वाब तो वो भी सजाती है वस्ल के..
हर ख्वाब पे रिवाजों का खंज़र चला है..

दुआ देना मन्नते मांगना उसकी फितरत है..
और हर दुआ में चाहती सबका भला है..

रस्मों पे कुर्बान, कसमों पे फ़ना..
हर अरमान इसी आतिश में जला है..

आहटों, मुस्कुराहटों पे सैकडों पहरे..
मानो लड़की नहीं कोई पुराना किला है..

रेजा- रेजा रोज़ मरती हैं उम्मीदें..
फरियादों से कब कोई पत्थर हिला है..

हर रोज़ मिन्नतें कर उगाती वही सूरज..
जो हर शाम शर्मसार सा ढला है..

शायरों के लिए रूह-ऐ-सुखन है वो,
उसी के नाजो-अदा से चर्चा मिला है..

बज्मे-जहाँ में उसके हादसों का हुजूम..
बदकिस्मती ये कि टालने से कब टला है..

उसके हुस्न और जलवों पे तो सब मिटे हैं..
फुगाँ पे कब कोई संगदिल मचला है..

हर बशर कि शख्सियत उससे है..
उसी के आँचल में हर बचपन पला है..

अलामत है ये इब्तिदा कि कैफियत न कर..
सुखन पे 'रोशन-ऐ ख्याल मुकम्मिल होंसला है..

warm regards..
ankita..

Tuesday, September 2, 2008

गर खुदा है..

गर फलक पार वो खुदा है..

फिर क्यूँ हर बशर गमजदा है..

हर सूं मुफलिसी और नाकामी..

क्यूँ बेअसर मजलूम की सदा है..

हर शहर लूट और गैर-बराबरी..

मेरा चर्चा कब तुझसे जुदा है..

सफीना-ऐ-जिन्दगी बीच तलातुम..

और साहिल पे पशेमां सा नाखुदा है.

ता-उम्र अश्को-गम बेहिसाब मिले..

सहरा-ऐ-सफ़र किस्मत में बदा है..

मौत मुझसे हारे या की मैं उससे..

हो तमाशा बयाँ क्यूँकर ये मुद्दा है..

आतिश-ऐ-दोजख में ख़ाक जिन्दगी..

'रोशन-ऐ-ख्याल' के सुखन में फिरभी अदा है..

*********

ankita...

Monday, September 1, 2008

इन्ही पगडंडियों पे चलते चलते.
.अठखेलियाँ करते करते..
एक दिन वोह मिले थे..
पहले निगाहें मिली..
फिर मन भी मिले थे..
वो श्यामल रंग का..
जिंदादिल नौजवान था..
और वो रंगीन तितली सी..
सादगी उसकी पहचान थी..
दोनों दुनिया की ,
सबसे हसीं शै में खोये थे..
बहुत हंसते थे वे..
कई बार हंसते हंसते रोये थे..
उनकी हर बात निराली थी..
एक अलग सी दुनिया बसा ली थी..
कभी ख़त लिखते थे..
कभी ग़ज़ल कहते थे..
कई बार चंद के चेहरे को..
आयत की तरह पढ़ते थे..
दरअसल वे मोहब्बत में पड़े न थे..
मोहब्बत ने उन्हें कैद कर लिया था..
जब उनको अपने मासूम ख्वाबों की,
इबारत रखनी थी..
उसी पल उसी लम्हे से,
दुनिया ने उन्हें अपने निशाने पे रख लिया था..
अब वो इश्क के मारे न थे..
गर मुआफ मुजरिम थे..
उन्होंने संगीन जुर्म किया था..
इंसानी ज़ज्बे को चाह था..
चाहत से पहले वे ,कुछ भूल गए थे..
खुद को भुलाने से पहले,
अपना दायरा अपनी नींव भूल गए थे..
उन्होंने एक दूजे को,टूट के चाहा था..
पर वो दौर-ऐ-समाज के,
कुछ उसूल, रसूख भूल गए थे..
कैसे उन्होंने हिमाकत की..
देवत्व प्राप्त जाति की लड़की...
और दिल हारी भी तो किस पर..
एक अदना सा भिश्तियों का छोकरा..
कैसे अपने शिवाले को होने दे मैला..
नहीं कुछ तो करना होगा..
मन की वो पढ़ा लिखा है.
पर खानदान तो निपट गिरा है..
फिर पंचायत हुयी, बैठकें बुलाई गयी..
और फिर मोहब्बत की सजा सुनाई गयी..
या के इनको अलग कर दो..
और जो न माने तो,
सर को धड से अलग कर दो..
सुन कर दोनों की रूह काँप गयी..
अरे वो तो अभी अभी ,
नींद की खुमारी से जागे थे..
वे इंसान तो थे ही नहीं..
बस अभागे थे..
जात धर्म की परिभाषा तो उन्हें,
कभी भी समझ न आती थी..
एक दूजे को जान कर..
एक पुख्ता समझ बनायीं थी..
पर आज तो जैसे सारी दुनिया..
उन्हें गुनाहगार बनाये थे..
कैसे वे खुद को भूल सकते थे..
जब उनके दिल एक साथ धड़कते थे..
साथ जीने मरने की कसमे खायी थी..
साँसों पे तो अपनों ही पहरा लगा दिया..
पर साथ मर तो सकते हैं..
यही सोच कर उन्होंने..
उसी कुए ,
में अपना आखिरी घर बसा लिया..
ये कुआ उनके अनगिनत पलों का,
खामोश गवाह था..
इस आज़ाद मुल्क के,
दो आज़ाद ख्याल जवानियों का..
एक साथ जीना गुनाह था..
और कुछ दिन बाद फिर सब..
पहले सा रवां था..
हाँ लेकी दो बबूल के पौधे ..
कुए की मुंडेर पे उग आये थे..
कुआ अपने होने से परेशान था..
बबूल के काँटों की ..
अनछुई घुटन का..
एक वो ही तो निगहबान था..
*****
अंकिता..

Tuesday, August 26, 2008

meri chhoti

वो मेरे वजूद का एक भरा पूरा हिस्सा थी..
हर ख़ुशी, हर गम उसके साथ बिताया था..

उसकी हर छोटी सी बात मेरे लिए किस्सा थी..
उसकी हर मुस्कान को आँखों में बसाया था..

अभी अप्रैल माह को गुजरे दिन ही कितने हुए..
हर चीज को अपन एही हाथों से सजाया था..

पापा ने मेंहदी का पौधा सालों पहले बीजा था..
उसी मेंहदी को चुन कर आँगन में सुखाया था..

उसकी ख्वाहिश थी मेंहदी मैं ही लागों..
उसकी चाँद सी हथेली पे एक और उगाया था..

और जाते जाते आँखों में पानी भरकर..
मैंने अपने दिल को दिल से लगाया था..

अगले ही दिन तो आना था उसे..
फिर भी उसके जाने का एहसास गहराया था..

जब वोह आई उसका चेहरा पढना चाह था..
कुछ तो था उन आँखों में जो नजर न आया था..

या फिर नज़र तो आ गया था मुझे..
पर उसके लबों की मुस्कान ने उसे झुठलाया था..

फिर उस शाम को वो चली गयी..
और जाने क्यूँ उस पल पापा ने मेरे बालों को सहलाया था..

फिर मेरे कान हर रोज़ उसको सुनना चाहते..
पर न उसको कोई ख़त न फ़ोन ही आया था..

एक दिन भैया खुद ही चले गए थे वहां..
और उसने हमेशा की तरह सब छुपाया था..

'ख़ुशी' नाम जो दे दिया था हमने उसे..
तो खुश दिखना उसे हमेशा से बखूबी आया था..

कल उसका जन्मदिन है यही सोचकर..
मैंने उसके पास फ़ोन मिलाया था..

उसकी आवाज़ की खलिश मैंने सुन ली थी..
उसने तो कई बार समझाया था..

सुबह से बेचैन सी थी दिल में..
बिना बताये मैंने वहां का टिकेट कराया था..

और शाम होते होते मैं पहुँच गयी थी..
सहमते- सहमते दरवाज़ा खटखटाया था..

दरवाज़ा खुला और मैं पत्थर सी जम गयी..
उन्होंने मेरी छोटी की तस्वीर पे दिया जलाया था..

अरे आज तो मेरी छोटी का जन्मदिन है..
फिर मोमबत्तियों के जगह क्यूँ ये सब chaya था..

और मैं कातिलों के बीच खड़ी थी..
पर एक ही सवाल दिल में चकराया था..

कितनी खुश रहती थी 'ख़ुशी' हमेशा..
उसने हमेशा एक ही सपना सजाया था..

छोटी हमेशा कहती थी मैं कहीं न जाउंगी..
उसने शायद 'ख़ुशी'' के लिए जीवन गंवाया था..

मेरी छोटी तो सबसे अलग थी एकदम..
हमेशा से ही जीत का लोहा मनवाया था..

हम ही थे कसूरवार उसके शायद..
ये सात जन्मों का रिश्ता हमने ही रचाया था..

कातिल ये हैं जो ढोंग आकर रहे हैं..
या की हम जिन्होंने उसका घर बसाया था..

पापा की कितनी ऍफ़ डी टूटी..
और उसकी मौत का सामान सजाया था..

बचपन के सबक बचपन में ही रह गए..
दहेज़ प्रथा पर निबंध ने kitni बार इनाम दिलाया था..

छोटी तो नौकरी करना चाहती थी..
पर 'ख़ुशी' ने अपना फ़र्ज़ निभाया था..

काश हम छोटी को छूती ही रहने देते..
ख़ुशी को डोली में बिठा छोटी को पहली बार हराया था..

छोटी की मासूमियत ने मुझे बहुत कुछ दिया..
और मैंने जिन्दगी का एक मकसद बनाया था..

और किसी 'छोटी' को ''ख़ुशी'' से न हारने दूंगी..
'रोशने- ख्याल' ने ये डायरी में लिखवाया था..

warm regards,
अंकिता..

Thursday, August 21, 2008

एक और कोशिश...

एक और कोशिश...

जाने क्यूँ था उसे मेरी पशेमानी में उलझना मंजूर..

कहता था ऐसे भी क्या पा-ऐ-सफ़र पे चलना मगरूर..

उसी ने आज फिर कि है गुजारिश...

कि आज कुछ लिखना जरूर...

आज फिर से रू-ब-रू है मुझसे खलिश..

मैं भी गुम थी उतार लेती वरना सुरूर...

टालूँ भी क्यूँकर ये छोटी सी गुजारिश..

मुफलिसी मेरी, आखिर उसका था कितना कुसूर..

बूंदों कि छुअन से भी मिली तपिश..

बावली रुत! तुमने यूँ भी रहना मगरूर..

क्यूँ अल्फाजों पे डालूँ मैं बंदिश..

हाँ मगर काफिये में कहना शऊर..

जब मैं सुन लेती हूँ उन लबों कि जुम्बिश..

फिर शोर क्यूँ ज़माने का सहना हुज़ूर..

दोस्तों ने भी कुछ इस तरह कि साजिश..

क्यूँ बेवजह फिर दुश्मनों को करना मशहूर..

क्यूँ न मेरे सुखन से रखे कोई रंजिश..

आखिर ''रोशन-ऐ-ख्याल" है अपना मजबूर...

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अंकिता......

एक अलग सा ख्याल...

एक अलग सा ख्याल...
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उसकी सुलगती आँखों में एक तूफ़ान सा है..

उसकी उनींदी सी पलकों पे एक जेहाद सा है..

उसके कांपते अधरों पे एक सैलाब सा है..

उसकी शारीरिक अभिव्यक्ति में एक बदलाव सा है..

उसे आजकल किताबों से एक लगाव सा है..

कुछ अरसे से उसकी भावनाओं में एक बहाव सा है..

उसके मुताबिक ये दौर-ऐ-समाज रिश्ते हुए तेजाब सा है..

मानो जलजले के आने से पहले मौसम में एक ठहराव सा है..

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अंकिता..

Wednesday, August 20, 2008

Kuch juda aehsas...

Frnz i wrote dis poem after undergoing heart rendering horrifying nd shameful first hand experiences of dis heineous crime ie. female foeticide during my internship period...a lot of people used come nd undergo ultrasounds nd den they will nvr return..
i hv heard of it earlier but wen i found dat how deep rooted it is in our society....well lets not dicuss here it goes..


मैं एक अजन्मी बच्ची हूँ..
मैं जानती हूँ मेरा कल क्या होगा..
मैं जानती हूँ मुझे कदम कदम पर खतरा होगा..
मैं जानती हूँ मुझे कम खाना कम पीना होगा..
मैं जानती हूँ मुझे अनपढ़ रहना होगा..
मैं जानती हूँ मुझे बारह की उम्र में शादी की चक्की में पिसना होगा..
मैं जानती हूँ चौदह की उम्र में मुझे प्रसव पीडा को सहना होगा..
मैं एक अजन्मी बच्ची हूँ........
मैं जानती हूँ मुझे दहेज़ की आग में जलना होगा..
मैं जानती हूँ मुझे हर जुल्म के आगे बिछना होगा..
मैं जानती हूँ मुझे जीते जी सैकडों बार मरना होगा..
मैं एक अजन्मी बच्ची हूँ...
लेकिन मैं पैदा होना चाहती हूँ..
मैं तुम्हारी दुनिया में आना चाहती हूँ..
हर जोर ज़ुल्म से टकराना चाहती हूँ..
मेरे जन्म से पहले मुझे मत मारो..
मेरे धूमिल भविष्य को ऐसे तो न संवारो..
मैं एक अजन्मी बच्ची हूँ...
मुझसे इस कद्र खौफ न खाओ..
मुझे अपनी दुनिया में आने दो..
मैं पैदा होना चाहती हूँ..
मैं एक अजन्मी बच्ची हूँ..

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अंकिता..

Tuesday, August 19, 2008

सुना तो बोहोत था,

सुना तो बोहोत था,
पर देखा न था!!
जब देखा तो वो सब देखा,
जो सुना तो था ,
पर देखा न था!!
क्या देखा??
भारत के गाँव,
उनमें मिटटी के छोटे छोटे घर..
गोबर-मिटटी से लिपे आँगन,
दौड़ते हुए नंग-धड़ंग bachhe..
धुल उड़ती है..
लू चलती है..
पर वोह दौड़ते हैं..दौड़ते हैं..
उनकी हड्डियां निकल आई हैं..
आँखें धंसी हुई हैं..
पर वे सब के सब दौड़ते हैं..
दौड़ते हैं जब तक..
कोई बीमारी लपक नहीं लेती..
जिन्दगी की दौड़ में हरा नहीं देती..
सुना तो बहुत था..
फिर आते हैं वे सपनों में..
आते हैं, दौड़ते हैं, कूदते हैं..
अपनी माँओं के सपनों में..
खिलखिलाते हैं, ठहाके लगते हैं..
हंसते हैं, मुस्कुराते हैं..
सपनों में दौड़ लगते हैं..
इस बार वो नहीं हारते..
पहली बार वे जीत जाते हैं..
सोती हुई माँओं की आँखों में ..
वे उम्मीद भर जाते हैं..
सुना तो बहुत था..

regards,
ankita

Ye Kya KAR Baithe..

फिजाओं की कद्रदानी तो हमसे ना हुई..
कमबख्त रुसवा मौसम को भी कर बैठे..
वफाओं की ताजपोशी में मौजूदगी ना हुई..
और गुनाहगारों से बेअदबी कर बैठे..
जवाबों की अदायगी से बेरुखी ही हुई..
फकत इक सवाल से जलजले बुला बैठे..
सफीना-ऐ-दिल के लहरों से दोस्ती ना हुई..
तिस पे नाखुदा से दुश्मनी कर बैठे..
तमाम उम्र दीदार-ऐ-यार की फुर्सत ना हुई..
रेजा-रेजा वो हमको दिल से भुला बैठे..

warm regards,

Dr. Ankita

एक अनुत्तरित प्रश्न..

एक अनुत्तरित प्रश्न..

शालीनता के मुखौटे..
भ्रष्टाचारों की फेहरिस्त..
आश्वासनों के पुलिंदे..
सत्ता का दंभ..
झूठी बयानबाजी..
सस्ती लोकप्रियता..
दमघौंतू प्रतियोगिता ..
पक्षपात की पराकाष्ठा.
गिरगिटों से समरूपता..
सियासी उछ्श्रीन्ख्लता ..
अतिशयोक्ति की प्रचुरता..
दिख्हाऊ भावनाताम्कता ..
मुस्कराहट में कुटिलता..
लोमडी सी लोलुपता..
पला बदलने में हासिल महारत..
अवैध को देना वैधता..
कुर्सी रुपी गुड पर भिनभिनाहट ..
साम्प्रदायिकता जो भड़के तो सुस्वागतम..
क्या कहने ! उनकी दूरद्रिष्टता..
माहौल को गर्माना..
आग भड़काना और हाथ सेंकना..
कुर्सी के लिए बेचैन..
हड़पने को तैयार उसे..
ये आस्तीन के सांप ..
क्या यही है उनकी राजनीती की ..
स्वच्छता और पारदर्शिता????

regards,
ankita..

मूर्तियाँ ही मूर्तियाँ..

मूर्तियाँ ही मूर्तियाँ..

सुना है आजकल बाज़ार में मूर्तियाँ बहुत बिकती हैं..
पत्थर की सोने की चांदी की कांसे की मूर्तियाँ..
मूर्तियाँ ही मोर्तियाँ..
ये मूर्तियाँ जब घरों में आ जाती हैं..
गहनों , फूलों, मालाओं से लद जाती हैं..
कभी कभी तो ये दूध भी पी जाती हैं..
और दूध में ही नेह्लाई जाती हैं..
इन मूर्तियों को सब याद रखतें हैं..
पर मूर्ती बनाने वालों को सब भूल जाते हैं..
वे छोटे कारीगर भूखे पेट सोते हैं..
उनके बच्चे भूख से मर जाते हैं..
उन्हें याद रखने की जरुरत ही क्या है?
उनकी बनायीं मूर्तियाँ ही सर्वस्व हैं..
ये मूर्तियाँ जो सबके दुःख हारती हैं..
अपने सृष्टा को तो ये भी भूल जाती हैं..
ये भी कृपा दृष्टि अपने खरीददारों पर ही रखती हैं..
सुना है आजकल बाज़ार में मूर्तियाँ बोहोत बिकती हैं..

_ ankita

Thoda Roomani ho jaate hain..

उसके पैराहन की वो मदमाती महक..
हुस्ने-माह सी छाती ही जाती है..
और वो रेशमी दामन की छुअन..
कहकशां सी हर पल को गुदगुदाती है..
सदा है उसकी या चिडियों की चहक..
मिश्री की तरह बस घुलती ही जाती है..
ख्याल उसका है जैसे हसरत-ऐ-दिल..
करार की तरह बस मिलता ही जाता है..
और सादगी है जैसे निगाह-ऐ-नियाज़..
गुंचा-ऐ-दिल बस चटकता ही जाता है..
मत पूछो वो नूरानी चेहरा..
मैहर-ओ-माह सा चमकता ही जाता है..
रंगत-ऐ-हुस्न उसकी कैसे हो बयान..
की नामबार भी होश खोता ही जाता है ..

.....
हुस्न-ऐ-माह- चौदवीं का चाँद
निगाह-ऐ-नियाज़- purpose of eyes full of luv..
मेहरो-माह - सूरज और चाँद..
नामबार - messenger..

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regards,
ankita