Monday, January 5, 2009

दिलो- दिमाग की सुनता क्यूँ है...

दिलो- दिमाग की सुनता क्यूँ है.
हर बार गुस्ताखी करता क्यूँ है..

बंद झरोखों सी रखा कर आँखें,
सवाल नज़र से करता क्यूँ है..

शहर की भीड़ से नाराज़गी कैसी,
फकत तनहाइयों से डरता क्यूँ है..

गुमनामियों में भी ढूंढ लेंगे तुझे.
हर्फो-अल्फाज़ से छुपता क्यूँ है..

रहम का भरम तोड़ दे दोस्त!
बेवजह गम-ऐ-गैर से वाबस्ता क्यूँ है.

आदमियत को कोसने से फायदा क्या,
रोज़ ज़ज्बा-ऐ-दिल मरता क्यूँ है..

जेरो- जबर जहाँ का फलसफा हुआ,
बर्फ सा दिल पिघलता क्यूँ है..

जुल्मो-सितम शहरे-हस्ती का सरमाया..
रोज़- रोज़ घर बदलता क्यूँ है..

रहबरों की रहबरी खाम सही,
सफ़र-ऐ- मंजिल से टालता क्यूँ है..

....

main hun...

Jamaane se barha bhulaya hua jikr hun.
Vasl ka yakeen dilata hua hizr hun.

Hain dosti ke darmayan mushkilein bahut.
Tassavur mein darz vo massom fikr hun..

Shaam se shehar mein garm hawa chalti hai.
Tere ik ishaare pe barsu; aisa abr hun..

Yun to khush rehte hain dost sabhi..
Adoo bhi naakhush nahin main vo sabr hun.

Yunhi duaayein karti rahe meri maa.
Uski kubooli duaaon ka shukr hun..

....