Saturday, December 12, 2009

मैं लहर हूँ बिखर जाऊँगी जानाँ..


तुम सिर्फ चाहतों के काबिल हो.

हजारों सजदों का एक हासिल हो.


यूँही साथ चलते जाना तमाम उम्र,

तुम हमसफ़र तुम्ही मंजिल हो.


तुम्ही से हैं शिकवे-गिले सारे,

मेरी बेजाँ जिन्दगी की महफिल हो.


तुम्हे अपना माने हर धड़कन मेरी,

तुम बेखबर, तुम इनका दिल हो.


मैं रोज़ तुम्हे पाकर खो दूँ,

और तुम हर बात से गाफिल हो.


मैं लहर हूँ बिखर जाऊँगी जानाँ,

तुम समेटो कि तुम साहिल हो.


मैं तुम्हे खुद में कैसे पाऊं?

मेरे लिए एक सवाल मुश्किल हो..


:-)

Saturday, June 13, 2009

मैं जिस रोज़

मैं जिस रोज़ तन्हा सफ़र में निकल गयी..
बस उसी रोज़ दौर-ए-निगाह बदल गयी..

अधूरे वादों, बंद दरवाजों से मेरे अहबाब.
दो एकदम साथ चले फिर हस्ती फिसल गयी..

ता-उम्र जिन्दगी ने शिकायत ना की कभी..
कल शाम परेशान सी सर-ए-उफक ढल गयी..

बहरों-बियाबान से मसलसल गुज़र रही थी मैं,
अल्फाज़ के दश्त में आके तबियत बहल गयी..

अब जेरो- जबर नागवार हैं जेहन-ओ-जाँ को.
दिल की बर्फ ज़ज्बा-ए-आतिश से पिघल गयी..

यूँ तो खामोशियों को ता-उम्र ढोया किये..
जाने फिर क्यूँ उस फुगाँ पे रूह दहल गयी..

रहबरी को ग़ज़ल से की मिन्नतें हज़ार..
कमबख्त वो मेरे सारे हर्फ़-ओ-अल्फाज़ निगल गयी..

राह-ए-शौक पे पशेमान सी चलती गयी मैं..
हुयी उस राह-शनास की आमद; मैं संभल गयी..

रोशन-ए-ख़याल जब से सीखा ये हुनर..
तमाम मुश्किलातें सफ़र-ए-मंजिल से टल गयीं..

--ankita--
16-09-2008.

Sunday, May 3, 2009

ऐ काश !! यूँ होता!!

जिंदगी चिडियों सी,
चुलबुली होती!

दोस्ती कलियों सी,
अधखुली होती!

मोहब्बत मौजों सी,
मनचली होती!

शामें ग़ज़लों सी,
पगली होती!

महफिलें कभी ना,
ढली होती!

आँखें शबनम से,
मली होती!

जब तस्सवुरों की,
अदलाबदली होती !

नींद ख्वाबों में,
घुली होती!

सहर ख्यालों से,
धुली होती!

साँसे हर पल,
मचली होती!

धड़कन मद्धम सी,
चली होती!

हसरतें कभी ना,
जली होती!

ख्वाहिशें यूँ ना,
टली होती!

खुशियाँ हर सिम्त,
फैली होती!

ज़ज्बात की बर्फ,
पिंघली होती!

हर दुआ की,
कुबूली होती!

आरजुएँ बचपन सी,
पली होती!

दुनिया माँ सी,
भली होती!

ऐ काश !!
यूँ होता!!
यूँ होता तो क्या होता!!

-anKIta-

Monday, January 5, 2009

दिलो- दिमाग की सुनता क्यूँ है...

दिलो- दिमाग की सुनता क्यूँ है.
हर बार गुस्ताखी करता क्यूँ है..

बंद झरोखों सी रखा कर आँखें,
सवाल नज़र से करता क्यूँ है..

शहर की भीड़ से नाराज़गी कैसी,
फकत तनहाइयों से डरता क्यूँ है..

गुमनामियों में भी ढूंढ लेंगे तुझे.
हर्फो-अल्फाज़ से छुपता क्यूँ है..

रहम का भरम तोड़ दे दोस्त!
बेवजह गम-ऐ-गैर से वाबस्ता क्यूँ है.

आदमियत को कोसने से फायदा क्या,
रोज़ ज़ज्बा-ऐ-दिल मरता क्यूँ है..

जेरो- जबर जहाँ का फलसफा हुआ,
बर्फ सा दिल पिघलता क्यूँ है..

जुल्मो-सितम शहरे-हस्ती का सरमाया..
रोज़- रोज़ घर बदलता क्यूँ है..

रहबरों की रहबरी खाम सही,
सफ़र-ऐ- मंजिल से टालता क्यूँ है..

....

main hun...

Jamaane se barha bhulaya hua jikr hun.
Vasl ka yakeen dilata hua hizr hun.

Hain dosti ke darmayan mushkilein bahut.
Tassavur mein darz vo massom fikr hun..

Shaam se shehar mein garm hawa chalti hai.
Tere ik ishaare pe barsu; aisa abr hun..

Yun to khush rehte hain dost sabhi..
Adoo bhi naakhush nahin main vo sabr hun.

Yunhi duaayein karti rahe meri maa.
Uski kubooli duaaon ka shukr hun..

....

Tuesday, December 9, 2008

Kooye- tanhaayi mein khush hun..

Voh bejaa koshishein karte hain manane ki.

Aur humein aadat nahi hai aazmaane ki..

Meri fikr na kar ; hain mere ahbaab bahut.

Kya hua jo hain tanz nigaahein zamane ki.

Rahbar na sahi; chalo anzaan hi sahi.

Jahan mein kaun karta hai parwah anzaane ki.

Ik musht yun dene the ashqon ke tohfe.

Jarurat hi kya thi ik muddat hansaane ki..

Sare-shaam kar diya tanha bazme-jahan mein.

Uss pe saza di khud ko bhulaane ki..

Khush thi main; falak pe chaand nihaar ke.

Kyun ki jurarrat usko aangan mein bulane ki.

Kooye- tanhaayi mein khush hun be-inteha..

Chaahat nahi fir koi mehfil sazaane ki..

Adaawat ki ahmiyat jarre se bhi kam hai.

Aur naa jarurat rahi doston ke samjhaane ki.

‘roshan-ae-khyaal’ tassavur badal badal jaate hain.

Fir vajah kya hai sukhan ke thehar jaane ki..

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ankita

Monday, November 10, 2008

मैं..

***

पेचीदगी में उलझी हूँ..

चाहकर भी न सुलझी हूँ..

कुछ इस कद्र हैरां सी..

खुद से ही परेशां सी..

कभी कभी चुपके से..

साये सी निगाहबां सी..

कैफियत की गिरफ्त में..

गुमशुदगी की जब्त में..

तारीख से लड़ती हूँ..

माजी को पलटती हूँ..

चाहतों को यूँ समेट..

पुरजोर कोशिशें करती हूँ..

इसी कश्म-कश में गुम..

मसरूफियत का लबादा ओढे..

हर कदम संभलती हूँ..

बहरहाल मैं खुश हूँ..

***