Monday, November 10, 2008

मैं..

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पेचीदगी में उलझी हूँ..

चाहकर भी न सुलझी हूँ..

कुछ इस कद्र हैरां सी..

खुद से ही परेशां सी..

कभी कभी चुपके से..

साये सी निगाहबां सी..

कैफियत की गिरफ्त में..

गुमशुदगी की जब्त में..

तारीख से लड़ती हूँ..

माजी को पलटती हूँ..

चाहतों को यूँ समेट..

पुरजोर कोशिशें करती हूँ..

इसी कश्म-कश में गुम..

मसरूफियत का लबादा ओढे..

हर कदम संभलती हूँ..

बहरहाल मैं खुश हूँ..

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