Monday, January 5, 2009

दिलो- दिमाग की सुनता क्यूँ है...

दिलो- दिमाग की सुनता क्यूँ है.
हर बार गुस्ताखी करता क्यूँ है..

बंद झरोखों सी रखा कर आँखें,
सवाल नज़र से करता क्यूँ है..

शहर की भीड़ से नाराज़गी कैसी,
फकत तनहाइयों से डरता क्यूँ है..

गुमनामियों में भी ढूंढ लेंगे तुझे.
हर्फो-अल्फाज़ से छुपता क्यूँ है..

रहम का भरम तोड़ दे दोस्त!
बेवजह गम-ऐ-गैर से वाबस्ता क्यूँ है.

आदमियत को कोसने से फायदा क्या,
रोज़ ज़ज्बा-ऐ-दिल मरता क्यूँ है..

जेरो- जबर जहाँ का फलसफा हुआ,
बर्फ सा दिल पिघलता क्यूँ है..

जुल्मो-सितम शहरे-हस्ती का सरमाया..
रोज़- रोज़ घर बदलता क्यूँ है..

रहबरों की रहबरी खाम सही,
सफ़र-ऐ- मंजिल से टालता क्यूँ है..

....

4 comments:

!!अक्षय-मन!! said...

shukriya akshay mujhe padhne ka..
aur aapka blog main jaroor padhungi... maroofiyat ke lamhaat kuch jyada hi ghere hain in dino..
par i commit to read u ..surely..

thanks alot..
बहुत अच्छा लिखा है बहुत प्यारी ग़ज़ल है......


अक्षय-मन

Peeyush..... said...

रहम का भरम तोड़ दे दोस्त!
बेवजह गम-ऐ-गैर से वाबस्ता क्यूँ है....


u ve great poetry skill...!!!

KG said...

bahut achchha likhti hai aap

NO-MORE said...

well...u hav really written very well...m also into writing..read my blog shayarsblog.blogspot.com...especially khwab taare hai... nd raat ke intezar...i am sure it suits ur taste