एक और कोशिश...
जाने क्यूँ था उसे मेरी पशेमानी में उलझना मंजूर..
कहता था ऐसे भी क्या पा-ऐ-सफ़र पे चलना मगरूर..
उसी ने आज फिर कि है गुजारिश...
कि आज कुछ लिखना जरूर...
आज फिर से रू-ब-रू है मुझसे खलिश..
मैं भी गुम थी उतार लेती वरना सुरूर...
टालूँ भी क्यूँकर ये छोटी सी गुजारिश..
मुफलिसी मेरी, आखिर उसका था कितना कुसूर..
बूंदों कि छुअन से भी मिली तपिश..
बावली रुत! तुमने यूँ भी रहना मगरूर..
क्यूँ अल्फाजों पे डालूँ मैं बंदिश..
हाँ मगर काफिये में कहना शऊर..
जब मैं सुन लेती हूँ उन लबों कि जुम्बिश..
फिर शोर क्यूँ ज़माने का सहना हुज़ूर..
दोस्तों ने भी कुछ इस तरह कि साजिश..
क्यूँ बेवजह फिर दुश्मनों को करना मशहूर..
क्यूँ न मेरे सुखन से रखे कोई रंजिश..
आखिर ''रोशन-ऐ-ख्याल" है अपना मजबूर...
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अंकिता......
Thursday, August 21, 2008
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