मैं जिस रोज़ तन्हा सफ़र में निकल गयी..
बस उसी रोज़ दौर-ए-निगाह बदल गयी..
अधूरे वादों, बंद दरवाजों से मेरे अहबाब.
दो एकदम साथ चले फिर हस्ती फिसल गयी..
ता-उम्र जिन्दगी ने शिकायत ना की कभी..
कल शाम परेशान सी सर-ए-उफक ढल गयी..
बहरों-बियाबान से मसलसल गुज़र रही थी मैं,
अल्फाज़ के दश्त में आके तबियत बहल गयी..
अब जेरो- जबर नागवार हैं जेहन-ओ-जाँ को.
दिल की बर्फ ज़ज्बा-ए-आतिश से पिघल गयी..
यूँ तो खामोशियों को ता-उम्र ढोया किये..
जाने फिर क्यूँ उस फुगाँ पे रूह दहल गयी..
रहबरी को ग़ज़ल से की मिन्नतें हज़ार..
कमबख्त वो मेरे सारे हर्फ़-ओ-अल्फाज़ निगल गयी..
राह-ए-शौक पे पशेमान सी चलती गयी मैं..
हुयी उस राह-शनास की आमद; मैं संभल गयी..
रोशन-ए-ख़याल जब से सीखा ये हुनर..
तमाम मुश्किलातें सफ़र-ए-मंजिल से टल गयीं..
--ankita--
16-09-2008.
Saturday, June 13, 2009
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