Saturday, June 13, 2009

मैं जिस रोज़

मैं जिस रोज़ तन्हा सफ़र में निकल गयी..
बस उसी रोज़ दौर-ए-निगाह बदल गयी..

अधूरे वादों, बंद दरवाजों से मेरे अहबाब.
दो एकदम साथ चले फिर हस्ती फिसल गयी..

ता-उम्र जिन्दगी ने शिकायत ना की कभी..
कल शाम परेशान सी सर-ए-उफक ढल गयी..

बहरों-बियाबान से मसलसल गुज़र रही थी मैं,
अल्फाज़ के दश्त में आके तबियत बहल गयी..

अब जेरो- जबर नागवार हैं जेहन-ओ-जाँ को.
दिल की बर्फ ज़ज्बा-ए-आतिश से पिघल गयी..

यूँ तो खामोशियों को ता-उम्र ढोया किये..
जाने फिर क्यूँ उस फुगाँ पे रूह दहल गयी..

रहबरी को ग़ज़ल से की मिन्नतें हज़ार..
कमबख्त वो मेरे सारे हर्फ़-ओ-अल्फाज़ निगल गयी..

राह-ए-शौक पे पशेमान सी चलती गयी मैं..
हुयी उस राह-शनास की आमद; मैं संभल गयी..

रोशन-ए-ख़याल जब से सीखा ये हुनर..
तमाम मुश्किलातें सफ़र-ए-मंजिल से टल गयीं..

--ankita--
16-09-2008.